23 सितंबर, 1941 को बिहार के गोपालगंज जिले के लोहटी गाँव के एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में जन्मे मैनेजर पांडेय की शिक्षा स्थानीय विद्यालयों में हुई। आपकी उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुई जहाँ उन्होंने एम.ए. और पी-एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। अध्यापकीय जीवन का प्रारंभ बरेली कॉलेज, बरेली से करने उपरांत जोधपुर विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के भाषा संस्थान में हिंदी के प्रोफेसर रहे हैं। गत साढ़े तीन दशकों से वे हिंदी आलोचना में सक्रिय हैं। गंभीर, विचारोत्तेजक, आलोचनात्मक लेखन के लिए वे कई पुरस्कारों से सम्मानित भी हुए हैं, जिनमें हिंदी अकादमी, दिल्ली का साहित्यकार सम्मान, राष्ट्रीय दिनकर सम्मान, रामचंद्र शुक्ल शोध संस्थान, वाराणसी का गोकुल चंद्र शुक्ल पुरस्कार और दक्षिण भारत प्रचार सभा का सुब्रह्मण्यम भारती सम्मान आदि हैं।
प्रो. मैनेजर पांडेय की रचनात्मक यात्रा में आलोचनात्मक संघर्ष परिलक्षित होता है। उन्हें जानने के लिए उनके रचनाकर्म के प्रारंभ के समय भारत एवं विश्व में चल रहे तमाम सत्ताविरोधी, साम्राज्यवाद विरोधी जनांदोलनों को बिना जाने, संपूर्णता में नहीं समझा जा सकता है। उनके आलोचना के तीन केंद्रीय तत्व - यथार्थवाद, इतिहासदृष्टि और विचारधारा है, इसी के माध्यम से वे किसी भी रचना की विगत अर्थवत्ता और वर्तमान सार्थकता को रेखांकित करते हैं। वे अपनी रचना में पूर्व परंपराओं का निर्माण करते हैं, उनकी आलोचना, मार्क्सवादी आलोचना को नया आयाम देती है। मैनेजर पांडेय की बहुचर्चित-बहुपठित और बहुप्रशंसित कृति 'शब्द और कर्म' उनके गंभीर अनुशीलन का परिणाम है। 'साहित्य और इतिहास दृष्टि', 'साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका', 'भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य', 'संकट के बावजूद', 'सीवान की कविता', 'मुक्ति की पुकार', 'अनभै साँचा','आलोचना की सामाजिकता','संकट के बावजूद','मैं भी मुँह में जबान रखता हूँ' आदि कई कृतियाँ हैं।
संक्षेपतः, मैनेजर पांडेय को आलोचकों का आलोचक कहते हैं। उनके यहाँ समकालीन रचनाशीलता की गहरी परख है। उनकी आलोचना सभ्यतापरक है, वह साहित्य, समाज और विचार के वर्तमान से टकराते हुए उज्ज्वल भविष्य का सपना देखती है। आलोचना-परंपरा के वे ऐसे विद्वान हैं जहाँ शब्द और कर्म का द्वैत नहीं रह जाता। शब्दों की रोशनी में कर्म की जनपक्षधरता आलोकित होती है। वयोवृद्ध यह मेधा आज भी अपनी पूरी प्रखरता के साथ विचारों की दुनिया में दीप्तिमान हैं। साहित्य आलोचक मैनेजर पांडेय पिछले दिनों व्याख्यान देने के लिए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा आए तो डॉ. अमित विश्वास ने उनसे समकालीन आलोचना सहित ज्वलंत मुद्दों पर लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश -
आप हिंदी आलोचना के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं, बताएं कि हिंदी आलोचना के प्रति रुचि कैसे जगीॽ
आलोचना में रुचि आलोचना पढ़ते-पढ़ते ही जगी। विद्यार्थी जीवन में ही मैंने जिन आलोचकों को विशेषतया पढ़ा था उनमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नंददुलारे वाजपेयी आदि प्रमुख थे। इन आलोचकों की आलोचनाओं में निहित और अंतर्विरोधों को पढ़कर ही मैंने आलोचना के क्षेत्र में काम करने का मन बनाया, उस समय मैं 'भक्ति आंदोलन और सूरदास' विषय पर पी-एच.डी. हेतु शोध कार्य में संलग्न था। मैंने पहला आलोचनात्मक आलेख 'भक्ति काव्य की लोकधर्मिता' लिखा, जो सन् 1968 में 'साहित्यिक निबंध' में प्रकाशित हुई। प्रगतिशील लेखक संघ के शिविरों में जाने से अपने आलोचकीय ज्ञान को थोड़ा बहुत व्यवस्थित और विकसित करने लगा। सन् 1971 में जोधपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन का अवसर मिला तो वहाँ पहले से ही डॉ. नामवर सिंह थे, उनके साथ विभिन्न साहित्यिक प्रश्नों पर बातचीत करते हुए आलोचना के क्षेत्र में दिलचस्पी बढने लगी। उनके संपादन में निकलने वाली पत्रिका 'आलोचना' में मेरे आलेख प्रकाशित होने लगे, चार लेख छपे, पाठकों ने बखूबी पसंद किया, वे लेख मेरी पुस्तक 'साहित्य व इतिहास दर्शन' में है। मेरे लेख कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे, जो 'शब्द और कर्म' नामक मेरी पुस्तक में संकलित है। इस प्रकार से 'शब्द और कर्म' तथा 'साहित्य और इतिहास दृष्टि' लेकर हिंदी आलोचना के क्षेत्र में आया।
समकालीन आलोचना के परिदृश्य में आपका मंतव्यॽ
समकालीन आलोचना की जो प्रवृत्तियाँ हैं, वह चिंताजनक अधिक हैं, उत्साहवर्धक कम हैं। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों और समीक्षाओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि आलोचना और रचना की परंपरा के गंभीर ज्ञान का अभाव है। यह नितांत समकालीनता तक सीमित हो गई है। अक्सर समकालीन कवियों, कहानीकारों और उपन्यासकारों की समीक्षा ही आलोचना के रूप में सामने आ रही हैं। मैं केवल पुस्तक समीक्षा को आलोचना नहीं मानता। रचना के केंद्र में स्थित समाज और विचार से अगर आलोचना की टकराहट नहीं है तो वह आलोचना नहीं है। मुझे यह कहने में कतई गुरेज नहीं है कि आज सबसे चिंताजनक पहलू इसका व्यक्तिगत राग-द्वेष से संचालित होना है। जिससे आपका राग है उसके लिए अतिरंजित प्रशंसा और जिससे आपका द्वेष है उसकी रक्तरंजित निंदा की जा रही है। मैं यह भी कहूँगा कि इस चिंता, संकट और अवसरवाद के बावजूद ऐसी आलोचनाएँ भी दिखती हैं जो आलोचना के भविष्य को लेकर न केवल हमें आश्वस्त करती हैं बल्कि उम्मीद भी जगाती हैं। गोपाल प्रधान, नंद भारद्वाज जैसे कुछेक ऐसे ही आलोचक हैं।
हिंदी आलोचना पर बात करते ही हम आचार्य रामचंद्र शुक्ल को आधार स्तंभ मानते हैं, उनमें आखिर क्या है जो आज भी आवश्यक बने हुए हैं, उनके बाद आलोचना को ऐसी विभूति नहीं मिल पाई है।
देखिये, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी आलोचना को अपने समय की, दुनिया की आलोचना के समकक्ष खड़ा किया। उनका अंग्रेजी आलोचना से एक ओर तो दूसरी ओर संस्कृत काव्यशास्त्र से गहरा नाता था। दरअसल इसमें खास बात यह है कि वह न तो संस्कृत काव्यशास्त्र के किसी सिद्धांत से और न तो अंग्रेजी के किसी आलोचक से अभिभूत थे। वह दोनों परंपराओं के विचारों को अपने समय और समाज की कसौटी पर कसकर, जिसे हिंदी और हिंदुस्तान के लिए उपयोगी समझते थे, उसे ही स्वीकार करते थे। वे स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े हुए आलोचक हैं। इसके दोनों पक्ष उनके यहाँ दिखाई देते हैं - एक अतिवाद यह है कि वह जिन चीजों को पसंद नहीं करते उसको पराया या विदेशी कहकर खारिज करते हैं पर साथ ही दूसरी कई विदेशी और परायी चीजों को हिंदी के लिए उपयोगी समझकर उनका स्वागत और उपयोग करते हैं। आचार्य शुक्ल कुल मिलाकर रीतिकाल और रीति कविता के विरोधी हैं। इसके बावजूद उन्होंने इस संबंध में कुछ बातें ऐसी खोजी, जो आगे चलकर बाद की हिंदी आलोचना के लिए दिशा-निर्देशक बनीं। उन्होंने रीतिकाल के बड़े कवियों की काव्यभाषा की उन्होंने जिस गहराई से सधी हुई व्याख्या की है, वह हमें मार्गदर्शन करती हैं। रीतिकाल के कवियों के सामाजिक दृष्टिकोण को वह बहुत पसंद नहीं करते हैं, लेकिन उनकी भाषिक संरचना की गुणवत्ता को वह जरूर देखते हैं। इतना ही नहीं, आधुनिक काल में भी आचार्य शुक्ल आमतौर से ऐसी कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि को महत्व देते थे जिनका संबंध कम से कम दो चीजों से दिखाई देता है, एक तो अपने समय के भारतीय समाज से, उसकी वास्तविकता से, उसकी समस्याओं से या किसी न किसी स्तर पर स्वाधीनता आंदोलन से। आचार्य शुक्ल ऐसे अकेले आलोचक हैं जिन्हें मैं पूर्ण आलोचक समझता हूँ। आलोचना के लिए आवश्यक सभी चीजें उनके यहाँ मिलती हैं। सैद्धांतिक ढाँचे का निर्माण मतलब हिंदी का अपना साहित्य शास्त्र निर्मित करना, जो न केवल संस्कृत के काव्य शास्त्र पर निर्भर हो और न केवल पश्चिम के आलोचना शास्त्र पर आधारित हो। इसलिए वे आलोचना के माइल स्टोन हैं।
क्या आप आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि को आचार्य शुक्ल का पूरक मानते हैंॽ
हिंदी आलोचना को समग्रता में चिंतन-मनन करें तो द्विवेजी जी आचार्य शुक्ल के पूरक के रूप में परिलक्षित होते हैं। पूरक कहने मतलब है मूल में जो न हो उसको जो पूरा करे, वही पूरक होता है। पूरक कहने से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्व कम नहीं हो जाता। कुछ विद्वान आचार्य द्विवेदी को आचार्य शुक्ल के विरोध में खड़ा करने की कोशिश करते हैं, जब आचार्य द्विवेदी आलोचना लिखने की शुरुआत करते हैं, उस समय तक आचार्य शुक्ल अपनी आलोचना लिख चुके थे। आप ही देखिए, 'आचार्य द्विवेदी की महत्वपूर्ण आलोचना की पुस्तक 'हिंदी साहित्य की भूमिका' लिखते समय उनके सामने आचार्य शुक्ल आदि से अंत तक खड़े हैं। इसमें वे यह कोशिश करते हैं कि आचार्य शुक्ल ने जो छोड़ दिया है, जो अपने इतिहास में नहीं किया है, जिन पक्षों की उपेक्षा की गई है, उन सबको समेट कर हिंदी साहित्य के इतिहास संबंधी दृष्टिकोण का निर्माण करें और इतिहास लेखन का भी कार्य करें। इस दृष्टि से मैं मानता हूँ कि आचार्य द्विवेदी आचार्य शुक्ल के वह पूरक ही हैं।
मैनेजर पांडेय जी, अब थोड़ा आलोचना से इतर समकालीन मुद्दों पर भी बात करें तो, सन् 1947 के बाद हिंदी समाज में किस तरह की बौद्धिकता का विकास हुआ है, क्या इस बौद्धिकता ने अपना कोई सामाजिक दायित्व पूरा किया हैॽ
ये तो आपका सवाल बहुत महत्वपूर्ण है और जरूरी भी क्योंकि हिंदी की बौद्धिकता को या हिंदी के बौद्धिक समाज को अपनी गतिविधियों, कार्यों, उसके उद्देश्यों की बार-बार छानबीन करनी चाहिए, मुझे लगता है कि आजादी के शुरू के दस-पंद्रह वर्षों तक जो बौद्धिक समाज था वह आजादी के आंदोलन से जुड़ा हुआ था उसमें गहरी सामाजिक चिंता थी, अत्यंत सजग राजनीतिक चेतना थी और अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दायित्वों का बोध भी था लेकिन 1960 के बाद जो बौद्धिक समाज हिंदी में आया है। यह दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हिंदी समाज में अधिकांशतः बौद्धिक वर्ग सब अपने दायित्वों से बेखबर या लापरवाह तथा राजनीतिक दायित्वों के प्रति उदासीन है। केवल अपनी व्यक्तिगत हैसियत, स्थिति और सफलता को पाने की विह्वलता है इस बौद्धिक समुदाय में। इसीलिए आप देखेंगे कि धीरे-धीरे एक तो हिंदी साहित्य से साहित्यिक आंदोलनों की विदाई हो गई है। मैं जब आंदोलनों की जरूरत पर बल दे रहा हूँ तो केवल प्रगतिशील, जनवादी या क्रांतिकारी आंदोलन तो होना चाहिए क्योंकि कोई एक आंदोलन होगा, चाहे वो प्रगतिशील या कलावादी हो तो उसके समानांतर दूसरा आंदोलन जरूर होगा। दूसरी बात यह है कि 1990 के बाद खासतौर से पूँजीवाद के भूमंडलीकरण की आँधी भारत में आने के बाद और उसकी विचारधाराएँ, जो बौद्धिक लोग हैं वे प्रायः सार्थक जीवन जीने के बदले सफल जीवन जीना चाहते हैं। देखिए, सफलता हमेशा व्यक्तिगत होती है और सार्थकता सामाजिक होती है इसलिए ये जो बौद्धिक समुदाय हैं ये अपनी निजी तरक्की की चिंता करनेवाला समुदाय है अन्यथा भारत में जो आम जनता की बदहाली है, जो दशा है, गरीबी है, असमानता है, दमन है उसके विरुद्ध हिंदी में बहुत कम आवाजें उठती हैं। इस देश में सब अंग्रेजी में लिखने-पढ़ने वाले लोगों की ही आवाजें हैं जिसकी अनुगूँज हिंदी में प्रायः दिखाई पड़ती है इसीलिए मैंने कहा कि जो वर्तमान समय का हिंदी का बौद्धिक समाज है वह अनेक प्रकार से चिंताएँ पैदा करता है।
क्या आप मानते हैं कि हिंदी का रचनात्मक साहित्य हिंदी समाज में कोई प्रासंगिक स्थान बना पाया हैॽ
हिंदी के रचनात्मक साहित्य के बारे में यह चिंता बहुत जायज है पर उस पर सोचते या राय बनाते समय दो-तीन बातों पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। पहली बात ये है कि कहीं भी और कभी भी ऐसा नहीं होता है कि एक साहित्य तत्काल लिखा जाय और उसका समाज पर तत्काल प्रभाव पड़े, ऐसा केवल आंदोलनों के समय होता है। दूसरी बात ये है कि हिंदी क्षेत्र की एक ऐसी स्थिति है, जिस पर कि हिंदी वाले भी कम ध्यान देते हैं और पहले लोग तो ठीक से जानते भी नहीं थे कि हिंदी क्षेत्र की अधिकांश जनता अपनी जिंदगी जीती है। हिंदी से अलग जो बोलियाँ हैं, लोकभाषाएँ हैं उनमें जैसे - भोजपुरी है, ब्रजभाषा है, अवधी है, बुंदेलखंडी है, बहुत सारी हैं। हिंदी से उनका संबंध उतना आत्मीय नहीं होता जितना उन बोलियों या लोकभाषाओं से होता है, जिनमें वह अपनी जिंदगी जीती है इसलिए हिंदी साहित्य के प्रभाव का क्षेत्र संकुचित दिखाई देता है। दूसरी बात यह है कि हिंदी क्षेत्र में शिक्षा की भी पर्याप्त कमी है इसलिए किताबें, पत्रिकाएँ हिंदी क्षेत्र के आम लोगों तक बहुत कम पहुँचती हैं, मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा हूँ, सामान्य स्थितियों की बात कर रहा हूँ कि अधिकांशतः पढ़े-लिखे शहरी मध्यवर्ग तक हिंदी ने अपनी पहुँच बनाए रखी है। यह जो शहरी मध्यवर्ग है वही समकालीन हिंदी साहित्य की रचनाशीलता की जन्मभूमि या कर्मभूमि है और जो हिंदी का या पूरे देश का जो मध्यवर्ग, भारतीय भाषाओं की तुलना में अंग्रेजी के पीछे दौड़ रहा है। आजकल बड़े पैमाने पर मध्यवर्ग के साथ एक स्थिति जुड़ गई है। एक खास स्थिति में वे लोग स्थानीय होने के पहले राष्ट्रीय होना चाहते हैं और राष्ट्रीय होने के भी पहले अंतरराष्ट्रीय हो जाना चाहते हैं इसलिए हिंदी साहित्य की जो समकालीन रचनाशीलता है वह व्यापक हिंदी समाज में फैलने, अपना प्रभाव पैदा करने, हैसियत बनाने के लिए केवल बौद्धिक समुदाय के बीच क्रियाशील हैं।
हिंदी में साहित्येतर विमर्श अपना गंभीर व मानक स्थान क्यों नहीं बना पाया हैॽ
मैंने जो आपको इसके ठीक पहले सवाल का उत्तर दिया उससे जुड़ी हुई बात है कि स्वाधीनता आंदोलन के दौर में हिंदी में समाज विज्ञानों से जुड़ी हुई चिंताएँ, चिंतन व लेखन का काम बहुत अधिक हुआ था। एक तरह से 19वीं सदी के अंत से 20वीं सदी के शुरू के चार-पाँच दशकों तक हिंदी में राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र आदि से जुड़े हुए चिंतन व लेखन के बारे में ध्यान दें तो बहुत समृद्ध पाएँगे। आजादी के बाद आरंभिक एक-दो दशकों तक यह प्रवृत्ति चलती दिखाई देती है। मतलब हिंदी में आजादी के बाद सामाजिक विज्ञान पर काम करने वाले दो लोगों का नाम याद पड़ रहा है -श्यामाचरण दुबे व पूरणचंद्र जोशी। अब यह प्रवृत्ति कई कारणों से समाप्त हो गई है -इसका सबसे पहला कारण तो यह है कि भारतीय भाषाओं में लिखे विज्ञान संबंधी लेखन को विश्वविद्यालयों में कोई महत्व नहीं मिलता है। विश्वविद्यालय के अध्यापकों और छात्रों के जीवन की सफलताओं में उसका कोई योगदान नहीं माना जाता है। अंग्रेजी में लिखे एक लेख या किताब को तरजीह दी जाती है इसलिए बहुत लोग (वह अध्यापक व छात्र दोनों हो सकते हैं) ज्ञान की दुनिया में अपनी हैसियत बेहतर बनाने का राजमार्ग अंग्रेजी को समझते हैं। आपको राजपथ पर चलने की जब आदत बन जाए तो जनपथ पर कौन चलेगा इसलिए हिंदी में ही नहीं जिन भारतीय भाषाओं में, जिनसे मेरा परिचय है उनका उल्लेख करूँ तो जिन भारतीय भाषाओं में समाज विज्ञान संबंधी चिंतन व लेखन बहुत हुआ था जैसे बांग्ला व मराठी, उनमें भी समाज विज्ञान संबंधी लेखन की प्रवृत्ति घट रही है क्योंकि उनका महत्व घट रहा है खास करके विश्वविद्यालयों और ज्ञान की दुनिया में। इसीलिए हिंदी में भी समाज विज्ञान संबंधी चिंतन व लेखन लगभग मृतप्राय अवस्था में है।
मराठी, मलयाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ समाज में सामाजिक चिंता और सक्रियता की जैसी धारा है वैसी हिंदी में क्यों नहीं हैॽ
असल में एक तो हिंदी समाज की दो-तीन स्थितियों पर ध्यान देना जरूरी है। हिंदी समाज, जितना बड़ा है उतना ही बिखरा हुआ और असंगठित भी। वह हिमाचल से लेकर बिहार तक फैला हुआ है, लगभग देश का आधे से ज्यादा हिस्सा, और इस सारे क्षेत्र में लोकभाषाएँ अनेक हैं। इसलिए वह भीतर से सांस्कृतिक स्तर पर विभाजित समाज भी है। साथ ही मराठी में फुले या आंबेडकर जैसे नेता पैदा हुए, समाज सुधारक पैदा हुए जिनका असर अब भी मराठी समाज पर गहरे रूप में दिखाई देता है, या बंगाल में राजाराम मोहन राय से लेकर रवींद्रनाथ टैगोर जैसे सामाजिक चिंता करनेवाले महापुरुष पैदा हुए। इस तरह के लोग हिंदी में बहुत कम पैदा हुए लगभग नहीं के बराबर। नाम ध्यान में आता भी है, वो सारे साहित्यकार हैं। केवल बड़े समाज सुधारकों की खोज हिंदी क्षेत्र में करें तो लगभग नहीं के बराबर हैं। उस सबका नतीजा आज हिंदी समाज पर है कि बंगाल या महाराष्ट्र में जिस तरह की सामाजिक, राजनीतिक चेतना की परंपरा है और उसके परिणामस्वरूप वर्तमान में जो प्रभाव है वैसा हिंदी क्षेत्र में नहीं है।
आप जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में लंबे समय तक अध्यापनरत रहे हैं, वहाँ कई पीढ़ियाँ तैयार हुईं लेकिन ऐसा नहीं लगता कि ये पीढ़ियाँ देश में नया सामाजिक मानस गढ़ने में कारगर हो पाईं, लगता है कि ये सभी नौकरी खोजने, व्यवस्थित होने में ही मर खप गईं, ऐसा क्यों
ऐसा है कि पूरी तरह से यह बात सच नहीं है। मेरी जानकारी में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से ऐसे छात्र और ऐसी छात्राएँ निकली हैं जिनमें सामाजिक चिंता, राजनीतिक प्रतिबद्धता और बौद्धिक सजगता है, भले ही उनकी संख्या बहुत कम हो, धीरे-धीरे इन पर भी भूमंडलीकरण का दवाब व प्रभाव काम कर रहा है और छात्र-छात्राओं की मानसिकता प्रभावित हो रही है। तीसरी बात ये भी है कि जेएनयू के बारे में एक अफवाह फैली हुई है कि जेएनयू में काम करने वाले अध्यापक और पढ़ने वाले छात्र-छात्राएँ मार्क्सवादी होते हैं। जेएनयू में छात्रों का एक समुदाय एवीबीपी से जुड़ा हुआ है, एकाध बार जेएनयू के छात्र संघ के चुनाव में वो जीते भी हैं दूसरा जो समुदाय है उसका संबंध दलितों से है। इनका मार्क्सवाद से कुछ लेना-देना नहीं है और भी लोग हैं इसलिए ये कहना कि जेएनयू में पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग मार्क्सवाद से जुड़े हैं ये तो मार्क्सवाद के दुराग्रह से निकला हुआ नतीजा है पर आपसे एक बात जरूर कहूँगा कि सारी प्रगतिशील पतनशीलता के बावजूद अभी जेएनयू इस देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों से ज्ञान के प्रसंग में, राजनीतिक चेतना के प्रसंग में और सामाजिक संवेदनशीलता के प्रसंग में दूसरे विश्वविद्यालयों से बेहतर है।
वर्तमान संदर्भों में भारतीय लोकतंत्र पर आप क्या कहना चाहेंगेॽ
लोकतंत्र का मतलब सिर्फ पाँच साल में चुनाव करना ही नहीं है। अब्राहम लिंकन ने जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन व्यवस्था को लोकतंत्र बताया है। भारत में अधिकांश जनता, इस लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था से अलग है। आज हम भारतीय लोकतंत्र में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के यथार्थ को भलीभाँति देख रहे हैं। इस देश के नागरिकों को कैसी स्वतंत्रता मिली हुई है और उसका कितना दमन होता है, इसे जानना-समझना हो तो जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों की जनता से पूछिये; मूल आवश्यकताओं की तो छोड़ दीजिये, अपने जंगल, जमीन और जीवन के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासियों से जानिए; रोज दिन के दमन-शोषण, हत्या, एसिड अटैक से पीड़ित औरतों और बलात्कार के शिकार दलितों की जीवन स्थितियों पर एक नजर डालिए जनाब; इस देश के अल्पसंख्यकों के शोषण और उत्पीड़न को देखिए, बलात्कार, हत्या और आत्महत्या से गुजरने वाली भारतीय स्त्रियों के जीवन-मरण का जायजा लीजिए, भूखे बच्चों को पेट न भर पाने तथा जीवन से निराश और हताश होकर आत्महत्या करने के लिए मजबूर किसानों से आजादी का अर्थ जानिए। बेरोजगारी तथा भुखमरी का जीवन बसर करने वाले मजदूरों से लोकतंत्र की असलियत को जानिए। इतना ही नहीं, थोक भाव में बाल मजदूरी तथा संप्रभु शक्ति के पास बेगारी करते, गलियों के गंदे नालियों और सड़कों पर कूड़ा बीनते, भीख माँगते और अमीरों की कामुकता के शिकार होते बच्चों के जीवन को देखकर भारतीय लोकतंत्र के सच को पहचाना जा सकता है।
आजकल आप क्या लिख-पढ़ रहे हैंॽ
आजकल मैं भारतीय समाज के इतिहास के एक अनूठे व्यक्तित्व दाराशिकोह पर लिखने की तैयारी कर रहा हूँ। हिंदी क्षेत्र के लोकगीतों में 1857 के महाविद्रोह और उसकी पराजय के बारे में क्या कुछ कहा गया है, इस पर भी मैं काम कर रहा हूँ।
आखिर आप इतिहासपरक मुगलशासक पर क्यों झुक गए
मुगल शासक शाहजहाँ का बेटा दाराशिकोह, वह भारतीय समाज के इतिहास का एक अनूठा व्यक्तित्व है। उसके दो-तीन कारण हैं और प्रमाण भी। पहला वह - अकबर की तरह ही यह माना कि भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सच्ची एकता कायम होनी चाहिए। एकता कायम करने के लिए उसने दो बड़े काम किए - एक तो उसने फारसी में एक किताब लिखी 'मज्म-उल-बहरेण'। उसका स्वयं संस्कृत में अनुवाद भी किया था जिसका नाम रखा - 'समुद्रसंगम'। इस किताब की मूल धारणा यह है कि इस्लाम और हिंदू धर्म ये दो समुद्र हैं दोनों के बीच में संगम होना चाहिए। दूसरा उसने सबसे बड़ा काम यह किया कि 52 उपनिषदों का फारसी में 'सिर-रे-अकबर' नाम से अनुवाद किया, जिसका मतलब होता है - महान रहस्य और जो उसका अनुवाद है, उसके अनुवाद के माध्यम से लैटिन में अनुवाद छपा यूरोप में 1801 ई. में। उसके बाद सारे यूरोप में उपनिषदों का ज्ञान हुआ। एक तरह से दाराशिकोह भारतीय दर्शन और संस्कृति का राजदूत है यूरोप के लिए। वे तो सूफी साधक भी थे। उसने सूफी संतों और सिद्धांतों पर भी किताबें लिखीं और साथ ही वह फारसी का शायर भी था। मैं उस पर सामग्री जुटा रहा हूँ एक किताब लिखने के लिए।
नई पीढ़ी की रचनाकारों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे
देखिए, संदेश तो महापुरुष लोग देते हैं और नहीं तो भारत में संदेश महात्मा लोग देते हैं, जिनके संदेशों पर नई पीढ़ी ध्यान-वान नहीं देती इसलिए मैं ऐसा काम क्यों करूँ जो हवा में उड़ जाए। मैं अधिक से अधिक सलाह दे सकता हूँ, यह जोड़ते हुए कि हर आदमी उसे मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र है। वह यह है कि आजकल भारतीय समाज जिस दौर में है जैसी-जैसी समस्याओं का सामना कर रहा है उसको ध्यान में रखकर नई पीढ़ी को अपने भीतर गहरी मानवीय संवेदनशीलता, व्यापक सामाजिक चिंता और सजग राजनीतिक चेतना का विकास करना बहुत आवश्यक है अन्यथा भारतीय समाज अनेक संकटों में फँसने वाला है।